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मान लीजिए एक खबर है- एमएस धोनी ने 5 करोड़ रुपये की कीमत की नई कार खरीदी। ये खबर अगले दिन हर मीडिया में सुर्खियों में होगी- जिन प्रोग्राम का क्रिकेट से कोई लेना-देना नहीं, वे भी इसे दिखाएंगे। इसके उलट चेन्नई से इस साल अप्रैल में आई एक खबर का कहीं जिक्र नहीं हालांकि भारतीय क्रिकेट और राजनीति दोनों के लिए उसका महत्व आंखें खोलने वाला है।  
मद्रास हाई कोर्ट की एक बेंच ने एक पिटीशन पर फैसला सुनाया- सिर्फ खिलाड़ी ही खेल क्लब, एसोसिएशन और फेडरेशन में पदाधिकारी होने चाहिए। असल में हाई कोर्ट की एक बेंच (चीफ जस्टिस मुनीश्वर नाथ भंडारी और डी. भरत चक्रवर्ती) ने एकल न्यायाधीश (जस्टिस आर महादेवन) के इस साल 19 जनवरी के उस आदेश की पुष्टि की जिसमें कहा गया था कि अब से सिर्फ खिलाड़ी, न कि राजनेता/व्यापारी, राज्य में विभिन्न खेल क्लब, एसोसिएशन और फेडरेशन के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सचिव जैसे पदों पर होंगे।
19 जनवरी के फैसले के विरुद्ध तमिलनाडु ओलंपिक एसोसिएशन के सचिव ने एक रिट अपील दायर की थी जिसे खारिज करते हुए बेंच ने कहा कि उन्हें जस्टिस आर महादेवन द्वारा पारित आदेश में कोई कमी नहीं मिली। चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान, अपीलकर्ता के वकील से पूछा कि उन्हें तो ये समझ नहीं आ रहा कि राजनेता, शिक्षाविद और व्यवसायी अपने व्यस्त प्रोग्राम के बावजूद स्पोर्ट्स एसोसिएशन पर कंट्रोल करने में रुचि ही क्यों लेते हैं- कुछ तो है तभी तो स्पोर्ट्स एसोसिएशन के चुनाव जीतने पर भी करोड़ों रुपये खर्च कर दिए  जाते हैं।
एकल न्यायाधीश ने अपने आदेश में ये भी कहा था :
  स्पोर्ट्स एसोसिएशन का मैनेजमेंट सिर्फ खिलाड़ियों द्वारा किया जाए।   जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं के लिए एथलीटों का सेलेक्शन, वह सेलेक्शन कमेटी करे जिसमें (सख्ती से योग्यता के आधार पर) खिलाड़ियों को लिया हो।
*  सभी सेलेक्शन एक ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन सिस्टम लागू करने के बाद हों और राज्य की हर स्पोर्ट्स एसोसिएशन को अपनी वेबसाइट पर मिले और खर्चे पैसे का विवरण पब्लिश करना चाहिए। वेबसाइट पर सेंटर और राज्य सरकार से मिले धन का खुलासा करें और न सिर्फ एथलीटों को कोचिंग देने और उनके विभिन्न टूर्नामेंट में हिस्सा लेने के लिए खर्च किए गए धन का ब्यौरा हो- और खर्चे भी बताएं।
*  हर स्पोर्ट्स एसोसिएशन राज्य सरकार के साथ रजिस्टर्ड हो।  
जो इन में से किसी भी गाइड लाइन को तोड़े- उसके विरुद्ध कानूनी  कार्रवाई हो। भाई-भतीजावाद और पक्षपात खत्म हो। इस पूरे मामले पर एक व्यापक कानून बनाने का सुझाव भी दिया।
ये सब पढ़ कर ऐसा लगेगा कि ऐसा हो जाए तो भारत में खेलों का नजारा ही बदल जाएगा। क्रिकेट इस सबसे कुछ अलग नहीं है। इतिहास में तो ढेरों मिसाल हैं पर संयोग देखिए- जिस अप्रैल के महीने में ये फैसला आया- उसी महीने में सेंटर में Civil Aviation मिनिस्टर ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे महानारायण सिंधिया को ग्वालियर डिवीजन क्रिकेट एसोसिएशन का उपाध्यक्ष बनाया गया। ग्वालियर की क्रिकेट से सिंधिया परिवार का नाता किसी से छिपा नहीं- इस परिवार की बदौलत ही ग्वालियर हॉकी से क्रिकेट सेंटर बना और एक हॉकी स्टेडियम में इंटरनेशनल क्रिकेट खेले। भारतीय क्रिकेट बोर्ड की सदियों पुरानी परंपरा का सच है ये- बेटा, क्रिकेट प्रशासन में अपने प्रभावशाली पिता के नक्शेकदम पर चल रहा है।
आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि इस समय बीसीसीआई के 38 पूर्ण सदस्यों में से एक तिहाई से ज्यादा में टॉप पर, पुराने अधिकारियों और पॉवरफुल  राजनेताओं के बेटे या रिश्तेदार छाए हुए  हैं- बोर्ड के इतिहास में ऐसी सबसे ज्यादा हिस्सेदारी का रिकॉर्ड है ये। इतने सालों में, खिलाड़ी, नियम और खुद क्रिकेट बदल गई पर परिवार चले आ रहे हैं-  मध्य प्रदेश में सिंधिया, राजस्थान में रूंगटा, हरियाणा में महेंद्र, तामिलनाडू में श्रीनिवासन, हिमाचल में अनुराग ठाकुर परिवार, दिल्ली में जेतली, गुजरात में शाह और बंगाल में डालमिया-गांगुली इसकी कुछ सबसे  नई मिसाल हैं। जस्टिस आरएम लोढ़ा कमेटी के हस्तक्षेप के बाद, बड़ी उम्र वाले गए पर आए कौन- उन्हीं के परिवार से अगली पीढ़ी।  
 बीसीसीआई अभी भी एक बुलबुले में है- अपनी पिछली गलतियों से सीखने के लिए तैयार नहीं। हर राज्य एसोसिएशन को सालाना लगभग 40 करोड़ रुपये मिलते हैं (नए आईपीएल मीडिया अधिकार के बाद तो ये रकम और बढ़ेगी)। इतनी बड़ी रकम का कंट्रोल और उसकी बदौलत मिला प्रभाव- कोई छोड़ना नहीं चाहता। क्रिकेट बोर्ड राजनीति के बड़े कैनवास पर लॉन्च होने से पहले, व्यापार के गुर सीखने के लिए एक बेमिसाल फिनिशिंग स्कूल की तरह है। 

क्या चेन्नई में आया फैसला कुछ बदलेगा? बदलने की बात छोड़िए- उसे पढ़ा किसने?

  • चरनपाल सिंह सोबती

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