इन दिनों, डब्ल्यूपीएल में खेल रही ऑस्ट्रेलिया की क्रिकेटरों में से एक हरफनमौला एशले गार्डनर हैं- नीलामी में 3.2 करोड़ रुपये का दूसरा सबसे बड़ा कॉन्ट्रैक्ट मिला। नंबर 1 टी20 ऑलराउंडर- गुजरात जायंट्स टीम में। कुल मिलाकर उनका खेलना टीम के लिए कैसा रहा ये तो इवेंट के बाद ही कहा जा सकेगा पर ये इस क्रिकेटर का पूरा परिचय नहीं है। नोट कीजिए- अगर आगे के सालों में ऑस्ट्रेलिया की कोई भी टीम 26 जनवरी के दिन क्रिकेट मैच न खेले तो इसके लिए इन्हीं गार्डनर का नाम चर्चा में आएगा। क्या है ये मामला?
असल में हुआ ये कि इस साल 26 जनवरी (ऑस्ट्रेलिया का नेशनल डे) को ऑस्ट्रेलिया महिला टीम, पाकिस्तान के विरुद्ध टी-20 इंटरनेशनल खेली और जैसे ही इस मैच का प्रोग्राम बना था तो गार्डनर ने टीम की क्रिकेटर होते हुए, ‘उस’ दिन मैच खेलने की निंदा की। गार्डनर, का एक परिचय ये भी है कि वे ऑस्ट्रेलिया के लिए टेस्ट क्रिकेट खेलने वाली दूसरी स्वदेशी (Indigenous) महिला हैं। उनकी नजर में ये नेशनल डे, उनके लोगों के लिए खुशी का नहीं, ‘चोट और शोक का दिन’ है- ये दिन उनके लोगों के कत्लेआम, नरसंहार, दमन और उनकी जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करने की शुरुआत का प्रतीक है। तो इसे खुशी में मनाएं या उन सभी पूर्वजों और लोगों के जीवन के बारे में सोचें जिनकी जिंदगी उसके बाद बदल गई। 1778 में इस दिन, वह पहला समुद्री बेड़ा आया था जिसमें ऑस्ट्रेलिया में बसने वाले गोरे आए थे। इसलिए सच ये है कि, अभी भी जो कुछ मूल निवासी बचे हैं- वे इस दिन को आक्रमण दिन/उपनिवेश दिन (Invasion Day/Colonization Day) के तौर पर मनाते हैं।
क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने भावना को समझा और माना कि गलती हुई- हालांकि ये पहला साल नहीं है जब 26 जनवरी के दिन इंटरनेशनल मैच का प्रोग्राम बना। बहरहाल अब जबकि ये मुद्दा उठ ही गया तो कैलेंडर बदलना तो मुश्किल था पर क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने स्वदेशी लोगों के सम्मान के प्रतीक के तौर पर एक प्रोग्राम रखा जिसमें ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी मैच से पहले नंगे पांव शामिल हुए और मैच की ड्रेस ख़ास तौर पर बनाई स्वदेशी-थीम वाली। क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने क्रिकेट में सभी आदिवासी और टोरेस स्ट्रेट आइलैंडर लोगों के योगदान की सराहना की। इसीलिए उनकी टीम ने टी20 विश्व कप के दौरान फर्स्ट नेशंस की जर्सी पहनी।
वैसे सच ये है कि ये मुद्दा पहले भी कई बार चर्चा में आया और इसलिए ही तो 2021 में, क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने अपने कैलेंडर में 26 जनवरी के मैच को ‘ऑस्ट्रेलिया डे’ पर मैच लिखना बंद कर दिया था। ऑस्ट्रेलियाई महिला टीम, 2016 के बाद इस साल, इस दिन इंटरनेशनल मैच खेली। गार्डनर की इस मुहिम को पूरा समर्थन मिला- टीम ने भी उन्हें सपोर्ट किया। रिकॉर्ड के लिए- उस दिन के मैच में, ऑस्ट्रेलिया 100-2 (मूनी 46) ने पाकिस्तान 96-7 को 8 विकेट से हरा दिया। गार्डनर, मैच में खेलीं।
जब ये विवाद चल रहा था तो पता चला कि दुनिया में तो दूर की बात है- ऑस्ट्रेलिया के अपने (पुरुष-महिला दोनों) क्रिकेटरों में से ज्यादातर को तो इस सब के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। अपने देश के इतिहास, परंपराओं और धार्मिक सोच जैसी बातों की जानकारी होनी चाहिए और ये बात हर देश के खिलाड़ियों पर लागू है। भारत की ही बात करें तो भारतीय खिलाड़ी भी कोई जागरूक नहीं हैं और इस मामले में और शिक्षित होने की जरूरत है।
हाल की एक घटना इस मुद्दे पर शिक्षा की जरूरत का सबूत है। हाल ही के भारत-बांग्लादेश दूसरे टेस्ट के दौरान, भारत के एक खिलाड़ी ने, अपनी टीम के एक साथी को मिस फील्ड पर ‘छपरी’ कह दिया। भारत में ये नाम उन्हें दिया गया था जो छप्पर (कामचलाऊ छत) बनाते हैं। बदलते समय में, इस का सम्बोधन असहनीय बन गया हालांकि देश के कई हिस्सों में इसके प्रयोग की मिसाल हैं। जिस क्रिकेटर ने ऐसा बोला, उसे शायद खुद नहीं मालूम होगा कि ये ‘अपमानजनक’ है और यही शिक्षा की कमी है।
ये ठीक वैसा ही था जैसे कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, जब खिलाड़ियों ने इंस्टाग्राम पर एक-दूसरे का इंटरव्यू लेना शुरू किया, तो रोहित शर्मा के साथ बातचीत में युवराज सिंह ने, युजवेंद्र चहल को उनके ‘क्रिंग’ टिकटॉक वीडियो के लिए भंगी कह दिया था। ये शब्द भी एक ख़ास काम को करने वालों के लिए प्रयोग होता था। समय बदल गया तो उसमें क्रिकेटरों को भी बदलना चाहिए और ऐसा क्यों बोलें जिससे किसी की भावनाओं को धक्का लगे। अभी भी, घरों में, अपने गंदे बच्चे को मां भंगी कह देती है पर समाज में ये शब्द प्रयोग नहीं होता।
जब भारत की टीम ने ऑस्ट्रेलिया टूर में ‘रेशियल’ व्यवहार का विरोध किया तो वह क्या था? इंग्लैंड में कई काउंटी क्रिकेट क्लब इसी नस्लवाद की आग में झुलस रहे हैं। भारत की किकेट में कभी यह आरोप नहीं लगा कि टीम किसी धर्म या जाति के खिलाड़ियों को वरीयता देते हुए बनती है- तब भी, कई बार ये सवाल चर्चा में आता है कि कितने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाड़ियों को खेलने का मौका मिला है जबकि ये भारत की आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा हैं? दक्षिण अफ्रीका भले ही गोरे-काले के भेदभाव से बहुत आगे निकल आया पर यहां अभी तक कोटे के आधार पर टीम बनाने की बात होती है। दक्षिण अफ्रीका के कुछ गोरे क्रिकेटरों से बात करें तो वे कहते हैं कि रंगभेद के समय वे बच्चे थे और उन्हें नहीं मालूम कि देश में क्या हो रहा है?
डैरन सैमी जब सनराइजर्स हैदराबाद टीम में थे उनके साथी उन्हें ‘कालू’ कहते रहे- क्या मतलब था इसका? सैमी को भी बहुत बाद में पता लगा कि इसका क्या मतलब है? पाकिस्तान क्रिकेट में भी अलग-अलग वर्ग के खिलाड़ियों से टीम बनाने की बात कई बार हुई और किसी हिंदू क्रिकेटर का खेलना हेड लाइन बन जाता है। जरूरत है क्रिकेट एकेडमी में ही, क्रिकेट कोचिंग का ये भी हिस्सा हो ताकि आगे दिक्कत न आए।
- चरनपाल सिंह सोबती