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भारत-दक्षिण अफ्रीका टी20 वर्ल्ड कप ग्रुप मैच पर्थ में खेला जरूर गया पर क्या आपने नोट किया ये मैच उस डब्लूएसीए स्टेडियम में नहीं था- जो पर्थ में इंटरनेशनल क्रिकेट की पहचान है।  अब इंटरनेशनल क्रिकेट खेल रहे हैं बर्सवुड में पर्थ स्टेडियम में। इन दो स्टेडियम का एक साथ जिक्र महज दो स्टेडियम का परिचय नहीं है- बीते इतिहास को पीछे छोड़कर आधुनिकता से जोड़ने का किस्सा है ये। एक तरफ महान, पुराना और ऐतिहासिक स्टेडियम जिसमें समय की तेजी के हिसाब से बदलाव नहीं हुए तो दूसरी तरफ वह स्टेडियम जो शायद समय से भी आगे है। आज पर्थ तो कल और किसी देश के किसी शहर में भी यही देखने को मिले तो हैरानी की कोई बात नहीं।

 डब्लूएसीए में लिली-मार्श स्टैंड तो चल रहा था- प्रिंडीविल इनवेरारिटी स्टैंड की हालत तो ये थी कि उसे तोड़ना पड़ा। एक फ्लडलाइट टावर भी हटा दिया है। स्टेडियम की यादें हैं अब- वह तेज पिच जो बल्लेबाज में कंपकंपी पैदा कर देती थी, शोएब अख्तर की वह गेंद जिसने नॉर्मन कोवान्स के सिर से हेलमेट उड़ा दिया था, 1982-83 एशेज टेस्ट में डेनिस लिली के बाउंसर, जॉन स्नो की ‘टू हेल-टू हेल’ वाली गेंदबाजी और वसीम अकरम का एक बाउंसर जिससे डेविड बून बाल-बाल बचे। अब ऐसा कुछ नहीं होता है।

कई साल से ये चर्चा चल रही थी कि पर्थ में एक अपस्केल क्रिकेट स्टेडियम बन रहा है और इसके तैयार होने पर डब्लूएसीए इंटरनेशनल क्रिकेट की मेजबानी नहीं करेगा। डब्लूएसीए में सिर्फ 20,000 लोग क्रिकेट देखते थे- पर्थ स्टेडियम लगभग 60,000 दर्शक के लिए है। फर्क ये कि डब्लूएसीए में इतिहास है और नया स्टेडियम मानो सीमेंट और ईंटों की एक आधुनिक बिल्डिंग।  कोई हिल या बैंक नहीं, पुराने क्रिकेटरों के नाम पर कोई स्टैंड नहीं- यहां तक कि मीडिया सेंटर उन स्पोर्ट्स कमेंटेटर डेनिस कॉमेटी के नाम पर है जो ऑस्ट्रेलियन रूल्स से जुड़ी हैं।

नए स्टेडियम के चारों ओर अंडरपास  जिन से बसों, ट्रेलर और कारों को गुजरते देख सकते है। आप स्टेडियम पहुंचिए- कोई बड़ा लकड़ी या लोहे का गेट नहीं हैं पर इंडस्ट्रियल स्टील और एल्यूमीनियम के शटर हैं। आप दाखिल हो जाइए- कहीं नहीं पहुंचेंगे। सब मशीनीकृत और कंप्यूटर से जुड़ा- सीरियल नंबर चाहिए और पहचान के लिए कोड भी। गेट हमेशा बंद- कोई रास्ता बताने वाला नहीं। बस- कंक्रीट की कई परतें, रंगीन सीटें और विशाल हैंगिंग स्क्रीन। पिच में बाउंस है- ऑस्ट्रेलियाई स्टेडियम में सबसे तेज।

स्टेडियमों ने 2018 की शुरुआत में अपने गेट खोले और जल्दी ही ये कार्यक्षमता, तकनीकी उन्नति और शहरी विकास की मिसाल बन गया। नोट कीजिए- इसे वहां स्पोर्ट्स स्टेडियम नहीं,  छुट्टी का सेंटर कहते हैं। स्टेडियम बनाने में दुनिया के कुछ बड़े आर्किटेक्ट और इंजीनियर लगे। 2007 में इस स्टेडियम की स्कीम बनाई थी, लेकिन ‘डिजाइन और निर्माण’ कॉम्पिटिशन के बाद, 2014 में ही काम शुरू हुआ। बर्सवुड को इसलिए चुना क्योंकि स्वान नदी वहां है और नदी में रेत डालकर भी जमीन की कमी को पूरा किया।

लागत शुरू के अनुमानों से कहीं ज्यादा रही- 700 मिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर से 900 मिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर और आखिर में 1.6 बिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर से भी ज्यादा।स्वान स्टेडियम या रिवर स्टेडियम जैसे नाम भी सोचे पर आखिर में इसे पर्थ स्टेडियम का नाम दिया। अब आप सोचेंगे कि तो फिर इसे ऑप्टस स्टेडियम क्यों कहते हैं? असल में बजट बढ़ा तो 2017 में सरकार ने पॉलिसी बदली और 10 साल के लिए नाम बेच दिया ऑस्ट्रेलिया की प्रमुख दूरसंचार कंपनियों में से एक ऑप्टस को इस शर्त के साथ कि इंटरनेशनल टूर्नामेंटों के दौरान ये नाम प्रयोग नहीं होगा। इसीलिए टी20 वर्ल्ड कप की हर ऑफिशियल रिपोर्टिंग में स्टेडियम का नाम पर्थ स्टेडियम लिखा है, न कि ऑप्टस स्टेडियम।

स्टेडियम को कई खेलों के लिए डिजाइन किया है- खास तौर पर ऑस्ट्रेलियाई फुटबॉल और क्रिकेट के लिए। एक अस्थायी ट्रैक भी है- एथलेटिक्स के लिए। आसानी से इसे आयताकार ग्राउंड में बदल सकते हैं- तब फुटबॉल और रग्बी खेल लेंगे। इन सभी खेलों के लिए स्टेडियम इंटरनेशनल स्तर की शर्त को पूरा करता है। फुटबॉल के लिए 65,000 और कोई म्यूजिक कंसर्ट हो तो 70,000 तक की क्षमता है। भविष्य में इसे 10,000 और बढ़ाने की भी संभावना है।

30-हेक्टेयर जमीन है कुल। स्टेडियम के स्टैंड में लगभग 85 प्रतिशत हिस्से पर छत है। दो विशाल स्क्रीन 340 वर्ग मीटर आकार की। और तो और दर्शक स्टैंड की 5 मंजिलों में 1,000 आईपीटीवी स्क्रीन लगी हैं। 84 प्राइवेट बॉक्स, 1,500 टॉयलेट और विकलांगों के लिए 777 सीटें हैं जिनमें से 450 तो उनके लिए हैं जो व्हीलचेयर पर हैं। ये दुनिया का ऐसा पहला स्टेडियम है जहां विकलांग दर्शक के लिए मोबाइल टॉयलेट की सुविधा है।

बाहरी कवर कांच और एनोडाइज्ड एल्यूमीनियम का। 650 सीसीटीवी कैमरे, स्टेडियम के भीतर एक पुलिस स्टेशन और ट्रैफिक कंट्रोल ऐसा कि अपनी सीट के बिलकुल नजदीक तक अपनी कार से पहुंच जाएंगे। स्टेडियम को एक नया पैदल पुल बनाकर शहर से जोड़ दिया और यही नए लाइट रेल स्टेशन और बस टर्मिनल तक जाता है। सीधे स्टेडियम के बगल में 600 साइकिल भी खड़ी की जा सकती हैं।

इसे ‘अत्याधुनिक स्टेडियम’ कहते जरूर हैं पर ये वास्तव में कम्यूनिटी प्रोग्राम और रोजमर्रा के मनोरंजन के लिए भी है- लैंडस्केप वाले सार्वजनिक पार्क से घिरा, बारबेक्यू एरिया, खेल के मैदान, फिटनेस सेंटर, आर्ट गैलरी और 1,000 लोगों के लिए एक एम्फीथिएटर। ये है भविष्य का स्टेडियम। माटागरुप उस पुल का नाम है जो डब्लूएसीए स्टेडियम को बर्सवुड में  पर्थ स्टेडियम से जोड़ता है- वास्तव में ये इतिहास को आधुनिकता से जोड़ता है।
चरनपाल सिंह सोबती

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