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हैरानी है कि आईसीसी के एक फैसले को, किसी भी बड़े क्रिकेट देश, ख़ास तौर पर भारत ने चुनौती नहीं दी। आईसीसी बोर्ड का फैसला- 2023 और 2025 में वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप का फाइनल लंदन के लॉर्ड्स क्रिकेट ग्राउंड में खेला जाएगा। 2021 में वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप फाइनल (न्यूजीलैंड – भारत) भी लॉर्ड्स में ही होना था पर कोविड 19 के कारण, इसे  लॉर्ड्स से एजेस बाउल, साउथम्प्टन ट्रांसफर कर दिया था। इसमें ख़ास नोट करने वाली बात ये है कि जरूरी नहीं कि फाइनल, लॉर्ड्स में ही खेलना है। 
रोज़ बाउल में, जोरदार बारिश से खेल प्रभावित हुआ और कोई बहुत बढ़िया क्रिकेट नहीं हुई। अब सवाल ये है कि वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप का फाइनल, इंग्लैंड में ही क्यों हो- ख़ास तौर पर तब जबकि फाइनल की एक टीम इंग्लैंड न हो? जब 50 ओवर क्रिकेट वर्ल्ड कप की 1975 में शुरुआत हुई, तब भी यही तय हुआ था कि हर चार साल बाद, फाइनल लॉर्ड्स में खेलेंगे। हट गया न ये फाइनल लॉर्ड्स से- तो इसी तरह, अब ये क्यों मान गए कि डब्लूटीसी का हर फाइनल लॉर्ड्स में खेलेंगे? ऐसा भी नहीं है कि लॉर्ड्स, क्रिकेट की दुनिया का सबसे बेहतरीन स्टेडियम है और दुनिया और कोई स्टेडियम उनके मुकाबले पर नहीं ! 
उदाहरण के लिए : ईडन गार्डन्स, कोलकाता विश्व क्रिकेट के सबसे बड़े स्टेडियम में से एक है। जून 2023 में ही फाइनल खेलना है तो नोट करें- मानसून तब तक वहां नहीं आता है।एमसीजी, मेलबर्न भी ग्रैंड फिनाले के लिए किस से कम है? दक्षिण अफ्रीका के वांडरर्स को कैसे भूल सकते हैं? स्टेडियम ऐतिहासिक है। वहां भी जून में इतनी बारिश नहीं होती कि मैच न हो सके। बड़ा स्टेडियम चाहिए तो अहमदाबाद भी तो है। इसके अतिरिक्त- जैसे वर्ल्ड कप फाइनल जून से हिला दिया तो ये फाइनल भी जून में ही क्यों हो?
लॉर्ड्स स्टेडियम, एमसीसी का है और अब ऐसा नहीं रहा कि क्रिकेट का इतिहास, एमसीसी के बिना नहीं लिखा जा सकता। लॉर्ड्स वास्तव में, इतिहास में क्रिकेट का मक्का है- आज की क्रिकेट का ‘मक्का’ नहीं। यहां तक कि आईसीसी ने अपना ऑफिस वहां से हटा लिया।   
कोई ध्यान नहीं देता पर सच ये है कि लॉर्ड्स का नाम आने पर एक भ्रम सा बना दिया जाता है। एक गजब की मिसाल देखिए। हर टेस्ट के दौरान, सुबह 10.55 बजे लॉर्ड्स के पवेलियन में घंटी बजाई जाती है- खेल शुरू होने के प्रतीक के तौर पर। अब तो इसके लिए ख़ास लोगों को बुलाकर घंटी बजाने का ‘सम्मान’ दिया जाता है। आम तौर पर, हर कोई समझता है कि ये मारलेबोन क्रिकेट क्लब की परंपरा है और इसलिए एक बड़ा सम्मान है, जो गलत है। ठीक है, वहां सालों से घंटी बजाने की परंपरा है पर ग्राउंड स्टाफ वाले इसे बजाते थे। किसी बड़ी हस्ती के इसे बजाने की नकली परंपरा एमसीसी ने 2007 में शुरू की और इसे एक फंक्शन में बदल दिया। होड़ ऐसी चली कि अब कई स्टेडियम ने देखा-देखी ऐसी घंटी बजाना शुरू कर दिया है।  
पिछले कुछ सालों में ये साबित हो चुका है कि लॉर्ड्स अब नंबर 1 स्टेडियम नहीं। आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि एक समय लॉर्ड्स, मैच फिक्सिंग का पहला ‘होम’ था; इसकी पिचें कोई बहुत बढ़िया नहीं और, एक दुखद उदाहरण ये कि एमसीसी कमेटी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के समर्थन करती थी- पहले एमसीसी सेक्रेटरी और ब्रिटेन के सबसे बड़े, इंसानों को गुलाम बनाने वालों में से एक बेंजामिन आइसलाबी की पोरट्रेट दो साल पहले तक लॉर्ड्स में लगी हुई थी।
अब इस साल के, कुछ घंटे पहले ख़त्म हुए महिला द हंड्रेड टूर्नामेंट के फाइनल को देखिए। लगातार दूसरे साल ओवल इनविंसिबल ने फाइनल जीता। रन रेट- एक रन एक गेंद से मामूली ज्यादा। सदर्न ब्रेव ने 100 गेंदों में 101-7 बनाए और ओवल इनविंसिबल्स पांच विकेट से जीते तो 6 गेंद बची थीं। सिर्फ एक बल्लेबाज- ओवल इनविंसिबल्स की एलिस कैप्सी ने 120 से ऊपर के स्ट्राइक-रेट से रन बनाए। पुरुष द हंड्रेड- मैनचेस्टर ओरिजिनल 100 गेंदों में 120-9, जो इस टूर्नामेंट का तीसरा सबसे कम पहली पारी का स्कोर है। सिर्फ एश्टन टर्नर ने 120+ स्ट्राइक-रेट पर स्कोरिंग की। दोनों मैच एक ही पिच पर खेले। स्कोरिंग के लिए सबसे मुश्किल पिच, हर कोई इस की आलोचना कर रहा है और अब तो ये कह रहे हैं कि इस शोपीस क्लैश के लिए लॉर्ड्स को चुना ही क्यों? न सिर्फ, रन नहीं बने- असमान बाउंस ने इस खतरनाक बना दिया था। क्या ऐसे मैच इस टूर्नामेंट की लोकप्रियता बढ़ाएंगे? 
लॉर्ड्स में पिच की आलोचना कोई नई नहीं। 2019 क्रिकेट वर्ल्ड कप फाइनल के लिए इस्तेमाल पिच और आयरलैंड के विरुद्ध उस साल के टेस्ट- दोनों की आलोचना हुई थी। इंग्लैंड पहली सुबह 85 रन पर आउट! उस समय टेस्ट कप्तान जो रूट ने कहा था- टेस्ट मैच के लिए इससे घटिया विकेट नहीं देखा।  तो ये क्यों जरूरी है कि वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप का फाइनल लॉर्ड्स में खेलें? मजे की बात ये कि पूरी क्रिकेट की दुनिया में, टेस्ट में एक दिन के खेल की सबसे महंगी टिकट लॉर्ड्स की है- इस साल ये 160 पौंड (लगभग 15  हजार रुपये) थी।  

  • चरनपाल सिंह सोबती

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