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एक कोच, जो कई सालों से टीम की पहचान हो, जरूर चाहेगा कि किसी बड़ी कामयाबी के साथ टीम को अलविदा कहे- टीम इंडिया के कोच रवि शास्त्री ने भी जरूर यही चाहा होगा। उनके साथ आखिरी इंटरनेशनल मैच तो जीते, आखिरी टूर्नामेंट नहीं। टीम इंडिया, टी 20 वर्ल्ड कप टाइटल की दावेदार होने के बावजूद, सेमीफाइनल के लिए भी क्वालीफाई नहीं कर पाई- 9 साल में पहली बार किसी आईसीसी इवेंट के सेमीफाइनल में पहुंचने में नाकामयाब। एमएस धोनी की कप्तानी में 2013 चैंपियंस ट्रॉफी जीत के बाद से आईसीसी टाइटल का इंतजार जारी है।

2019 वर्ल्ड कप की हार के लिए भी उनके नाम को जोड़ा जाता है- बिना किसी तय नंबर 4 के साथ खेले। वे कोच के तौर पर इसे रोक सकते थे। ऐसी नाकामयाबी कुछ और भी हैं पर उन्हें याद किया जाएगा उस जिद्दी कोच के तौर पर जिसने अपनी पॉलिसी बनाई और कई यादगार जीत हासिल कीं।

अनिल कुंबले की जगह लेने वाले रवि शास्त्री कोई बहुत अच्छे माहौल में टीम से नहीं जुड़े थे। अनिल कुंबले ने 2017 में विराट कोहली की नाराजगी के बाद कोच के पद से आनन-फानन में इस्तीफा भेज दिया था। कुंबले काम करने के तरीके में मास्टर थे- सख्त अनुशासन और ट्रेनिंग पर जोर। रवि शास्त्री तेज-तर्रार तो थे पर व्यवहार में दोस्ताना- टीम को कुंबले की डिक्टेटरशिप और सख्ती रास नहीं आ रही थी। यहीं, विराट कोहली ने बीसीसीआई के विरोध का जोखिम उठाया और साफ़ साफ़ शास्त्री को टीम के साथ जोड़ने के लिए कह दिया, जो इससे पहले टीम डायरेक्टर के तौर पर काम कर रहे थे।

इस तरह शास्त्री कोच तो बन गए पर उनके हर एक्शन को जांच-पड़ताल वाली निगाहों के साथ देखा जा रहा था। तब तक उनकी छवि थी बीसीसीआई के ‘येस मैन’ के तौर पर- कमेंटेटर थे तो इंग्लैंड पर साफ आरोप लगाया कि वे टीम इंडिया को वर्ल्ड चैंपियन कहे जाने से जलते हैं, 2011 में डीआरएस लागू करने से बीसीसीआई के कतराने पर बोर्ड का ही साथ दे दिया और मीडिया उन्हें एक चीयरलीडर से ज्यादा कुछ नहीं मानता था। इसलिए डर था कि वे कोहली की हाँ में हाँ मिलाकर कोहली को और पावरफुल बना देंगे।

इस सब का मतलब ये नहीं कि कामयाबी नज़रअंदाज़ ही कर दें। रवि शास्त्री के साथ ऑस्ट्रेलिया (2018-19) में टेस्ट सीरीज जीतने वाली पहली एशियाई टीम बने, इस साल इस रिकॉर्ड को दोहरा दिया, वर्ल्ड टेस्ट चैम्पियनशिप फाइनल में पहुंचे जहां न्यूजीलैंड से हार गए और सीरीज बीच में रुकने से पहले इंग्लैंड में पांच टेस्ट की सीरीज में 2-1 की बढ़त ली। ये सभी उस टीम इंडिया के लिए कोई छोटी कामयाबी नहीं, जिसके लिए भारत से बाहर टेस्ट जीतना ही बहुत बड़ी बात था।

रवि शास्त्री की पहचान रही खिलाड़ियों में आत्मविश्वास बढ़ाना- मैच किसी भी मुकाम पर हो, उसे संभालने का विश्वास। मैन मैनेजमेंट खूब जानते थे। कोचिंग को एक अलग स्टाइल दी। अपने तरीके से काम किया- सपोर्ट स्टाफ की ऐसी टीम जुटाई जिस पर उन्हें विश्वास था।आज सब भूल गए हैं कि 2017 में राहुल द्रविड़ और जहीर खान को टीम के बल्लेबाजी और गेंदबाजी कोच के तौर पर टीम से जोड़ने के बीसीसीआई के फैसले को नहीं माना और अपने फैसले पर अड़े रहे। लगभग अनजान भरत अरुण को गेंदबाजी कोच के तौर पर आगे ले आए। नतीजा- राहुल द्रविड़ को विरासत में कोई टूटी, गुट में बंटी या बदनाम टीम नहीं दे गए हैं।

शास्त्री थे तो मौजूदा क्रिकेटरों से एक जेनरेशन पीछे के पर युवा पीढ़ी के साथ तालमेल में कामयाबी उनके दौर की पहचान रही। कोहली के साथ केमिस्ट्री गज़ब की थी और टीम में युवाओं को तैयार किया- जसप्रीत बुमराह ,ऋषभ पंत और सिराज का खेलना इसी का एक उदाहरण है। फिर भी हर ड्यूटी की एक शेल्फ लाइफ होती है- क्रिकेट बोर्ड ने फैसला किया कि टीम को अगले स्तर तक पहुंचने और तीनों तरह की क्रिकेट में विश्व-विजेता बनने के लिए एक बदलाव की जरूरत है।
बाते हैं जिन्होंने बोर्ड और रवि शास्त्री को हाल के महीनों में आपस में दूर किया। उदाहरण के लिए मैनचेस्टर टेस्ट नहीं खेलने के फैसले में उन्हें कतई शामिल नहीं किया गया। ठीक है कि वे आइसोलेशन में थे (लंदन में) पर कोच होने के नाते, उनसे बात तो हो सकती थी। इसी तरह, सीरीज के बीच में, उनके बुक लॉन्चिंग को पसंद नहीं किया गया। उन्हें बहरहाल इसका बिल्कुल भी पछतावा नहीं और उसके बाद जो हुआ, उसके लिए वे अपने प्रोग्राम को जिम्मेदार नहीं मानते।

उनके कोच के रोल का + पॉइंट : क्रिकेटरों के जीवन में एक मैनेजमेंट की जरूरत को समझा- हमेशा याद रखा कि खिलाड़ी परिवारों से महीनों से दूर हैं। खुलेआम माना कि तकनीकी कोचिंग कभी भी उनकी ताकत नहीं थी। हर युवा के लिए बड़े भाई बन गए। मार्च 2020 में उन्होंने कहा था- ‘मेरी भूमिका खिलाड़ियों को हिम्मती, सही सोच वाला, निडर क्रिकेट खेलने के लिए तैयार करने की है।’ शार्दुल ठाकुर इसकी एक मिसाल हैं- शास्त्री ने उन्हें इस साल गाबा में बेमिसाल पारी खेलने के लिए प्रेरित किया। विराट कोहली ने बताया कि कैसे 2018 के इंग्लैंड टूर से पहले शास्त्री के साथ बातचीत ने उन्हें 2014 के बाद के डर को दूर करने के लिए प्रोत्साहित किया। कैसे न झुकने के उत्साह ने मोहम्मद सिराज जैसे युवा को प्रेरित किया। अपने पिता के निधन के हफ्तों बाद, ऑस्ट्रेलिया में उन्होंने जिस तरह से खेला, कोई मामूली बात नहीं। 36 ऑल आउट के बाद यूं ही वापसी नहीं हो गई।ऐसा नहीं है कि शास्त्री के पास क्रिकेटिंग ब्रेन की कमी थी।अजिंक्य रहाणे को मेलबर्न में नम विकेट पर पहले दस ओवरों में आर अश्विन को गेंद देने के लिए उन्होंने ही मजबूर किया था।

जाते -जाते रवि शास्त्री बिना कोई कंजूसी किए ये भी बता गए कि बीसीसीआई की सोच कहाँ गलत हो रही है- सही शेड्यूलिंग पर ज्यादा ध्यान हो, दो टीम की सीरीज में कम से कम टी 20 क्रिकेट हो। खिलाड़ियों को आराम करने, फिट होने और टेस्ट क्रिकेट खेलने के लिए समय दें। वर्ल्ड टी 20 की नाकामयाबी को भी उन्होंने इसी के साथ जोड़ा।

वे निराशा के साथ नहीं, गर्व के साथ टीम इंडिया से अलग हुए- खुद कहा कि ‘सब कुछ तो हासिल कर लिया।’ टेस्ट क्रिकेट में नंबर 1 के पांच साल कोई मामूली बात नहीं। दुनिया के हर देश को वाइट बॉल क्रिकेट में उनके ग्राउंड पर हराया। टी 20 वर्ल्ड कप जीत लेते तो यह ‘केक पर आइसिंग’ होती पर वे निराश नहीं हैं। यहां तक कि वे इस बार पर भी नाराज़ नहीं कि सोशल मीडिया में उन्हें बेवड़ा, मैच के दौरान भी सोता रहने वाला और हर वक्त खाने वाला बताकर मजाक उड़ाया जाता रहा- ‘अगर किसी को मेरी कीमत पर खुशी मिलती है तो मैं भी खुश हूँ।’ शास्त्री अपने पीछे एक भरी पूरी विरासत और सुपरस्टार्स की एक टीम छोड़ गए हैं, जो दुनिया को चुनौती देने से नहीं डरती।

-चरनपाल सिंह सोबती

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