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आखिरकार वर्ल्ड कप 2023 का प्रोग्राम घोषित हो गया और हर दिन के साथ उस प्रोग्राम पर शोर भी ठंडा पड़ गया- जिन एसोसिएशन को मैच मिले वे खुश और तैयारी शुरू हो गई है। जिन्हें मैच नहीं मिले- वे अपने  ग्राउंड में कमियों से ज्यादा, ये ढूंढने में लगे हैं कि आखिरकार बीसीसीआई की पावर इक्वेशन में कहां फिट नहीं हुए? बहरहाल ये सब जानते हैं कि मैच बांटने में बीसीसीआई ने सिर्फ क्रिकेट को नहीं देखा और इसमें हैरानी की भी कोई बात नहीं। कुल मिलाकर, आईसीसी वर्ल्ड कप 2023 के लिए 10 वेन्यू चुने हैं- कुछ को कई मैच मिले और कुछ ख़ास छूट गए जैसे मोहाली, इंदौर, राजकोट, रांची और नागपुर।

इंदौर का होल्कर स्टेडियम लगातार तीनों फॉर्मेट के इंटरनेशनल मैचों की मेजबानी करता रहा है- इस साल बॉर्डर-गावस्कर टेस्ट सीरीज में एक टेस्ट भी वहां खेले पर वर्ल्ड कप की लिस्ट में नाम नहीं है। 1987 वर्ल्ड कप में यहां ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड मैच खेले थे। इंदौर भारत के उन कुछ क्रिकेट सेंटर में से एक है जिनके साथ इस देश में क्रिकेट आगे बढ़ा पर इस बात की चिंता किसे है? इसके उलट मोहाली का नाम स्टेडियम की लिस्ट में भले ही आया तो पावर इक्वेशन से पर अपने बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर की बदौलत बड़े मैचों के लिए एक नियमित क्रिकेट सेंटर बन गए- 2011 वर्ल्ड कप में भारत-पाकिस्तान ब्लॉकबस्टर सेमीफाइनल यहां खेले थे। वास्तव में 1996 से यहां वर्ल्ड कप मैचों की मेजबानी शुरू हुई थी।

वजह सब जानते हैं पर साफ़-साफ़ कोई नहीं बोल रहा- इस डर से कि कहीं आगे जो मैच मिल सकते हैं, वे भी न मिलें। सिर्फ पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन की तरफ से कहा गया- ‘ऐसा लगता है सिर्फ उन शहरों, जिनसे बीसीसीआई के बड़े ऑफिशियल जुड़े हैं, को ही मैच मिले हैं। हमने कोशिश की लेकिन एक भी मैच नहीं मिल सका- प्रैक्टिस मैच भी नहीं।’ पंजाब के खेल मंत्री गुरमीत सिंह मीत मोहाली को टूर्नामेंट से बाहर रखना एक राजनीतिक फैसला मानते हैं- ‘यह दुखद है कि जिस स्टेडियम ने भारतीय क्रिकेट के कई सुपरस्टार दिए, जो स्टेडियम देश के टॉप 5 वेन्यू में से एक गिनते थे- उसे एक भी मैच नहीं मिला।’

दूसरी तरफ, अहमदाबाद का नरेंद्र मोदी स्टेडियम- न सिर्फ ओपनिंग मैच, फाइनल और भारत-पाकिस्तान बड़ा मैच भी उनका है। मोहाली के पड़ोसी, धर्मशाला को 5 मैच मिल गए- पंजाब को एक भी नहीं। बीसीसीआई जरा सी समझ से प्रोग्राम को संतुलित बना सकते थे। धर्मशाला एकदम 5 वर्ल्ड कप मैच आयोजित करने वाला क्रिकेट सेंटर कैसे बन गया- सब जानते हैं। ये राजनीति नहीं तो और क्या है?

ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब बीसीसीआई सेक्रेटरी के तौर पर बीसीसीआई में नए-नए आए जय शाह हाई-प्रोफाइल मैच अहमदाबाद के लिए मांगते थे- अब वे इसे भारत का अन-ऑफिशियल ‘क्रिकेट सेंटर’ बना चुके हैं। एक लाख+ सीट की क्षमता वाला नया मोटेरा स्टेडियम फरवरी 2020 में लगभग तैयार था और गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन, बीसीसीआई में ऐसे पावर इक्वेशन में आई कि बड़े मैच के लिए मोटेरा स्टेडियम अब भारत में वैसा है जैसे एमसीजी या लॉर्ड्स- आईपीएल से लेकर वर्ल्ड कप तक, सब बड़े मैच उनके।

ईडन गार्डन्स या वानखेड़े स्टेडियम अब प्राइम मैचों की लिस्ट में पीछे रह गए हैं। जय शाह अब न सिर्फ बीसीसीआई में, एसीसी और आईसीसी में भी पावरफुल हैं जिससे अहमदाबाद अपने आप क्रिकेट सेंटर बन गया। इस इक्वेशन में हैरानी की कोई बात नहीं- जगमोहन डालमिया के दिनों में कोलकाता और शरद पवार के दिनों में मुंबई को भी ऐसे ही मैच मिलते थे और उसके बाद पेंडुलम चेन्नई की तरफ झुका एन. श्रीनिवासन की बदौलत।

हालांकि जब भारत में आखिरी बार 2011 में वनडे वर्ल्ड कप खेले थे तो शशांक मनोहर बीसीसीआई अध्यक्ष थे लेकिन आईसीसी चीफ पवार तब ‘किंग मेकर’ थे और वानखेड़े को फाइनल दिला दिया। ब्रेबोर्न स्टेडियम के 2006 चैंपियंस ट्रॉफी फाइनल की मेजबानी में भी यही हुआ था। डालमिया 1987 वर्ल्ड कप फाइनल और 1996 वर्ल्ड कप सेमीफाइनल कोलकाता ले गए। बहरहाल ये भी तय है कि इतिहास और एक बड़े क्रिकेट स्टेडियम के इन वेन्यू के रुतबे ने भी इन फैसलों में मदद की- इसीलिए कोई उंगली नहीं उठा सका।  मुकाबले पर और बेहतर स्टेडियम भी कितने थे?

अब बेहतर स्टेडियम की गिनती ज्यादा है- तब भी वर्ल्ड कप मैच बांटने का तरीका बीसीसीआई की पॉलिसी पर सवाल खड़े करता है। पुणे और धर्मशाला के नए फेवरिट बनने से मोहाली, नागपुर, राजकोट और रांची जैसे टेस्ट सेंटर का पत्ता कटा और इसीलिए राजनीतिक दखलंदाजी और व्यक्तिगत पसंद की बातें होने लगी हैं।

ख़ास तौर पर मोहाली की बात करें तो ये साफ़ है कि इसे क्रिकेट के नक़्शे पर लाने के लिए जिम्मेदार आईएस बिंद्रा के रिटायर होने के बाद, इसका डाउनफॉल शुरू हुआ- सबसे ख़ास बात ये कि एसोसिएशन को कोई ऐसा बड़ा नाम मिला ही नहीं जो बीसीसीआई में अपनी ‘पहचान’ बनाए- अगर नवजोत सिद्धू, युवराज या हरभजन जैसे स्टार क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेशन में आते तो बात कुछ और ही होती। अब पावर इक्वेशन में मजबूत स्थिति और रसूख का युग है- इस बात की चिंता किसे है कि आईएस बिंद्रा वही बोर्ड ऑफिशियल हैं जिन्होंने न सिर्फ 1987, 1996 वर्ल्ड कप को भी भारतीय उपमहाद्वीप में लाने में बड़ी ख़ास भूमिका निभाई थी। इसी तरह मीडिया अधिकार की बिक्री से आए जिस पैसे की नींव पर इस समय बीसीसीआई पर टिका है- उसके लिए ‘क्रिकेट को बेच सकते हैं’- ये सोचने वालों में से एक बिंद्रा भी थे। बाकी का काम उनके भारत सरकार में एक बड़े अधिकारी होने के प्रभाव ने पूरा कर दिया।

आज धर्मशाला जैसा नया स्टेडियम 5 मैच ले गया और मोहाली को एक मैच भी नहीं मिला। अब मोहाली में नया मुल्लांपुर स्टेडियम बन रहा है। उसके साथ क्या होगा- कोई नहीं जानता क्योंकि ये दलील खोखली है कि मोहाली का मौजूदा स्टेडियम, आईसीसी स्टैंडर्ड पर खरा नहीं उतरता। क्या कभी बताया गया कि क्या कमी है- अन्य सेंटर में भी तो रेनोवेशन बड़े पैमाने पर चल रही है। अहमदाबाद के नए स्टेडियम में पिछले मैच के दौरान स्टैंड पर छत होने बावजूद पानी टपक रहा था- क्या ये इंटरनेशनल स्टैंडर्ड है? एक भूतपूर्व कप्तान की पत्नी ने वीआईपी स्टैंड में सीट होने के बावजूद कहा- वे जितनी देर स्टेडियम में रहती हैं, टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं करतीं- ये इतने गंदे और अन-हाइजीनिक हैं। ये बात उस स्टेडियम के बारे में कही- जिसे वर्ल्ड कप के मैच मिले हैं।

राजकोट पर सौराष्ट्र क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष जयदेव शाह कहते हैं- ‘इसके बारे में हम कुछ नहीं कर सकते… बस मान लें और आगे बढ़ें।’ सभी एसोसिएशन इस बंटवारे को इतनी आसानी से हजम नहीं कर पा रहीं- हालांकि कर वे भी कुछ नहीं सकतीं। बीसीसीआई ने इन वेन्यू को लॉलीपॉप देने का सिलसिला शुरू कर दिया है- जिन्हें अब वर्ल्ड कप मैच नहीं मिले, उन्हें इस सीजन में ही 50 ओवर मैच की मेजबानी का मौका मिलेगा। जय शाह ने तो ऐसी स्टेट क्रिकेट एसोसिएशन को मुआवजा देने का तीर भी छोड़ा है। इन ‘नजरअंदाज’ को लिखी उनकी चिठ्ठी में दर्ज है कि उनके प्रस्ताव को दिल्ली, धर्मशाला, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई, पुणे, हैदराबाद, अहमदाबाद, बेंगलुरु और लखनऊ के वर्ल्ड कप मैच आयोजित करने वाली एसोसिएशन ने मान लिया है।  

  • चरनपाल सिंह सोबती

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