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राजकोट टेस्ट के तीसरे दिन टीम इंडिया के क्रिकेटरों ने बाजू पर काली पट्टी बांधी- भारत के पूर्व कप्तान दत्ताजीराव गायकवाड़ को श्रद्धांजलि देने के लिए। टेस्ट से दो दिन पहले, लगभग 95 साल की उम्र में बड़ौदा में उनका निधन हो गया था। निधन तक- रिकॉर्ड के अनुसार, 2016 में दीपक शोधन की मृत्यु के बाद से, वह भारत के सबसे बड़ी उम्र के जीवित टेस्ट क्रिकेटर थे। वैसे ये बात समझ से बाहर है कि बीसीसीआई/टीम मैनेजमेंट ने टेस्ट के पहले ही दिन ऐसा क्यों नहीं किया?

बदलते समय में पुराने क्रिकेटरों की यादें धूमिल हो रही हैं और हर कोई आज के क्रिकेटरों के बारे में जानना चाहता है- मीडिया में उनके बारे में जानकारी की भी कोई कमी नहीं। फिर भी मौका आए तो पुरानी यादों का जिक्र होना चाहिए- तभी तो पता चलेगा कि आज की क्रिकेट तक कैसे पहुंचे?

दत्ताजीराव 11 टेस्ट खेले और 1959 में इंग्लैंड टूर में कप्तान थे- 5 में से 4 टेस्ट में और 1 टेस्ट में पंकज रॉय कप्तान थे। उनकी कप्तानी में, बड़ौदा ने 1957-58 सीज़न में फाइनल में सर्विसेज को हराकर, पहली बार रणजी ट्रॉफी भी जीती। उनका एक और परिचय ये है कि उनके बेटे अंशुमन गायकवाड़ ने 1970 से 80 के दशक तक 40 टेस्ट खेले- वे अपने डिफेंस के लिए बड़े मशहूर थे और उन सालों की टेस्ट क्रिकेट में ऐसे बल्लेबाज की जरूरत भी थी। वे टीम इंडिया के कोच और नेशनल सेलेक्टर भी रहे।

इस परिचय से ये तो तय हो जाता है कि वे बड़ौदा में क्रिकेट की पहचान थे। रणजी ट्रॉफी में, दत्ताजीराव गायकवाड़ 1947 से 1961 तक बड़ौदा के लिए खेले और रिकॉर्ड रहा- 47.56 औसत से 3139 रन, जिसमें 14 शतक थे। टॉप स्कोर- 1959-60 में महाराष्ट्र के विरुद्ध 249* रन। जब खेलना छोड़ा तो बड़ौदा में क्रिकेट को बढ़ावा देने में लग गए और ढेरों क्रिकेटरों को इसका फायदा मिला। बड़ौदा क्रिकेट एसोसिएशन में भी रहे। किरन मोरे और पठान भाई तक उनके योगदान को याद करते हैं। मोती बाग ग्राउंड में एक बरगद के पेड़ के नीचे अपनी नीली मारुति कार पार्क करते थे- सिर्फ डीके सर की कार को वहां खड़ा करने की इजाजत थी और जब वह आते थे, तो सब चुप हो जाते थे। ग्राउंड्समैन से लेकर खिलाड़ियों और कोच तक- पिन-ड्रॉप साइलेंस रहता था।

बड़ौदा के महाराजा परिवार से भी उनका दूर से नाता रहा। जब नौकरी की तलाश कर रहे, भारत के टेस्ट क्रिकेटर सीएस नायडू को महाराजा ने कोच बनाया तो दत्ताजीराव गायकवाड़ भी उनके ट्रेनी में से एक थे- 12 साल के थे। बहुत जल्दी जूनियर टूर्नामेंट खेलने लगे। सीएस नायडू से लेग स्पिन और गुगली गेंदबाजी सीखे- इसके अतिरिक्त सीएस ने अटेकिंग स्ट्रोक पर जोर दिया। गड़बड़ तब हुई जब महाराजा ने विजय हजारे को भी कोच बनाकर बुला लिया- वे डिफेंसिव बैटिंग पर जोर देते थे। इस चक्कर में कई क्रिकेटरों की क्रिकेट बिगड़ गई पर दत्ताजीराव उनमें से थे जो इन दोनों आर्ट को सीख गए।

बाकी की कमी, बॉम्बे यूनिवर्सिटी के लिए खेलने से पूरी हो गई। तब बड़ौदा में कोई यूनिवर्सिटी नहीं थी। अक्टूबर में2020 में, उनके 92वें जन्मदिन पर पोस्टल डिपार्टमेंट एक फर्स्ट डे कवर जारी किया था।

उनकी क्रिकेट टेलेंट को देखते हुए ये बड़ी अजीब सी बात है कि दत्ताजीराव ने 9+ साल (1952-1961) में सिर्फ 11 टेस्ट मैच खेले। जून 1952 में लीड्स में इंग्लैंड के विरुद्ध डेब्यू किया- फ्रेडी ट्रूमैन ने भी इसी टेस्ट में डेब्यू किया था और टेस्ट क्रिकेट में इस पेसर की पहली गेंद को उन्होंने ही खेला था।

उन्होंने बड़ौदा के युवराज महाराजा प्रतापसिंहराव गायकवाड़ के समय में क्रिकेट खेलना शुरू किया था। तब सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय (बड़ौदा के महाराजा) भी वहीं थे। प्रताप विलास पैलेस में रहते थे। युवराज के बेटे, फतेहसिंहराव गायकवाड़ भी क्रिकेट के शौकीन थे और बचपन में उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए दत्ताजीराव को बुलाते थे। इसकी वजह ये थी कि दत्ताजीराव के पिता बड़ौदा आर्मी स्टाफ के चीफ और सयाजीराव गायकवाड़ के एडीसी थे। उनके पिता और प्रतापसिंहराव में दोस्ती थी और इस तरह दत्ताजीराव शाही परिवार तक पहुंच गए।

पहली बार 1951 में भारतीय टीम के लिए चुना गया था। 1952 में जब वास्तव में प्लेइंग इलेवन में आए तो सच ये है कि टीम में तय ओपनिंग जोड़ी थी ही नहीं। दत्ताजीराव काउंटी टीमों के विरुद्ध मैचों में नंबर 6 पर खेले पर पंकज रॉय रन नहीं बना रहे थे तो हजारे ने दत्ताजीराव को ओपनर बना दिया और वे मजबूरी में मान गए। दत्ताजीराव को ऐसे में जिस सपोर्ट की जरूरत थी- वह उन्हें नहीं मिला। 1959 इंग्लैंड टूर के लिए भी वास्तव में हेमू अधिकारी कप्तान थे पर बिल्कुल आखिरी मुकाम पर जब हेमू ने अपना नाम वापस लिया तो दत्ताजीराव को कप्तान बनाया था। 

चरनपाल सिंह सोबती

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